हरिहर झा की तीन कविताएँ


नाम: हरिहर झा
जन्म: बाँसवाड़ा ( राजस्थान )    
शिक्षा: उदयपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि ।         
कार्यक्षेत्र:
भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के  कम्प्यूटर  विभाग मे  वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्य  करने के पश्चात मेर्लबन के मौसम विभाग मे  वरिष्ठ सूचना–तकनीकी अधिकारी  के पद पर।
  सरिता मे लेख व अनुभूति़, हिन्दीनेस्ट, कृत्या़, काव्यालय   आदि में     कवितायें प्रकाशित । ऑस्ट्रेलिया के साहित्यिक सम्मेलनों में कविता-पाठ । टी वी (चेनल – 31)  व आस्ट्रेलिया के  रेडियो कार्यक्रम पर कवितायें प्रसारित ।
पुरस्‍कार और सम्‍मान:
Outstanding Achievement in Poetry” by “International Society of Poets - at Las vegas
Editor’s Choice award – by International Library of Poetry
Select as Poet of The Week on bologi.com on September 10, 2006
Poems in Anthology:
‘बूमरैंग’,अंग अंग में अनंग, मृत्युन्जय
Poem Bilingual Anthology ‘Hidden Treasure’ – Published by Melbourne Poets Association.
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(1)
नाटक
समन्दर पार कंटीली झाड़ी के पीछे
झोपड़ी के  आंगन में
भले सताती चिन्तायें और बढ़ती धड़कन
पर जहां मिलती थी
प्रेम की सौगात
चाहता तो ले लेता
हँसते हुये
लेकिन ठहराव से विद्रोह कर के
यहां तो  फंस गया दुविधा में
धुंधलाई शाम में  बीयर की बोतल खुलने पर 
चांद ने
जब अंधियारे को चूमा
तो मेरी शान से सजाई हुई
बत्तियों को
अस्तित्व का खतरा नजर आया 
मैंने मुँह बिचका लिया
तन गई एक एक नस
जिसकी थकान ही
लिख डालती सलवटें बिस्तर पर ।

जागते हुये देख रहा हूँ सपना कि
नींद नहीं आती डालर के नोटो  पर
कितनी अच्छी थी बाजरे की रोटी
 सरसों का साग
अब  यहां पर
हर मुस्कान शिष्टाचार के विरुद्ध है 
और खुश होने  का अर्थ
देशद्रोह , एक घमन्ड, एक पाखन्ड
जो कविता की आत्मा के खिलाफ है  
तो भीगो ले  अपने तकिये
स्वार्थ पर प्रेम की और
देह पर आत्मा की जीत के लिये
भोग पर अध्यात्म की जीत के लिये
रोना न आये तो रो ले
ग्लीसरीन लगा कर ! 
समझ ले !
टपकते आँसू  एक संस्कृति है ।
*******
(2)
बुलन्द आवाज
चिढ़ाने का सा भाव
सपनीली आँखों से
देख कर
मैं अपने को पाता हूँ
आधा अधूरा
यह खालीपन …
जाने क्यों ?
ढूढंता हूँ
कुछ  पाने के लिये
पर हाथ बढ़ा कर भी
रोक नहीं पाता
फिसलते  क्षण; 
विरान दिल को
डूबा देती हो अथाह सागर में
तुम्हारे धनुष-बाण घुस आते हैं -
दिल-दिमाग की तंत्रियां झंझोड़ कर
 नग्न विचारों को एक झटका देकर
अनकहे भावों की बखिया उधेड़ कर
दे देती हो
एक तिनके का सहारा
जिसका आशय समझ नहीं पाता
मौन वार्ता सुन नहीं पाता
कुछ जान नहीं पाता
सिवा इसके कि -
आकाश से दुधिया चांदनी
जब रिसती हुई गीरती है
धरती के दामन पर
तो यह मदमस्ती बरगलाती
प्रलोभन देती 
इसकी लहलहाती फसल
थामे हुये  जो तुम खड़ी हो
यह तुम्हारे जिस्म से निकलती
बुलन्द आवाज है
रूह से निकलता
संगीत है
*******
(3)
तस्वीर-चोर
छीन कर ले गई थी एकाकीपन
प्यास हुई तृप्त
जाम के गिलास से फिसलती मेरी उंगलियां
दिल की धड़कन में एक खुशी
 प्यार का सिलसिला
तुम्हारा वो झूठमूठ बिछड़ना
और इतराना |

बन गये फिर से अजनबी
सह नहीं पाता तुम्हारी खामोशी
हसरत है कि टूट जाय
झूमझूम कर उभरती
नाच की धुन का लय
यादों में और ख़्वाबों में;
मैं एक महत्वाकांक्षी लेखक
फ़िल्म-निर्देशक
जूझता और सुलझाता हर कड़ी
झिलमिलाती पर्दे पर रोशनी
झांकती मेरे दिल में;
यह केमेरा
काला कलुटा
देख रहा मेरे भीतर दर्दनाक सिनेमा
छूता, सहलाता
मेरी रूह का जिस्म
मेरी संवेदनायें और अनुभूति;
घायल मन में
छुपाई तस्वीरें चुरा कर
मनोरंजन करवाता लोगों का
भड़ुवा
मेरी खिल्ली उड़वाता
यह बौद्धिक वैश्यावृत्ति है
या सृजनशीलता ?
यह कैसी उस नराधम
तस्वीर-चोर की साज़िश !
*******

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2 Responses to हरिहर झा की तीन कविताएँ

  1. वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति, धन्यवाद!

    ReplyDelete
  2. अच्छी कविताएं।
    बधाई!

    ReplyDelete

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